[Advaita-l] [advaitin] Re: Does the mukta/jnani see the world?

V Subrahmanian v.subrahmanian at gmail.com
Fri Dec 22 10:13:27 EST 2023


Thanks for the Sridhari commentary.

One of the statements of Yama in this chapter:

https://www.transliteral.org/pages/z100517064042/view

सप्तमः स्कन्धः – अथ द्वितीयोऽध्यायः

यथा मनोरथः स्वप्नः सर्वमैन्द्रियकं मृषा ॥४८॥

Just as manoratha (imagination that is indulged in the waking) and dream
are not real, so also this world which is perceived through all senses is
not absolutely real.


(There is a definition for the waking state:  इन्द्रियैर्थोपलब्धिः जागरणम्
Waking is that state where the objects are contacted through senses.)


अथ नित्यमनित्यं वा नेह शोचन्ति तद्विदः ।

Because of this, the wise do not grieve over anything, whether long
standing or short-lived.

नान्यथा शक्यते कर्तृं स्वभावः शोचतामिति ॥४९॥

Because there is a rule that what is born must die.


We know from this saying of the Bhagavatam: The world is akin to dream, not
real like the proverbial castle in the air. This premise stated by Veda
Vyasa in the Bhagavatam is accepted with no compromise only in Advaita.
This premise is contradictory to the doctrinal beliefs of other schools.


See Sridhara Swami’s commentary here:
https://groups.google.com/g/advaitin/c/8uCaO1Qdov0

regards

subbu

On Fri, Dec 22, 2023 at 5:29 PM Sudhanshu Shekhar <sudhanshu.iitk at gmail.com>
wrote:

> 
>
> यथा सुषुप्तः पुरुषो विश्वं पश्यति चात्मनि । आत्मानमेकदेशस्थं मन्यते स्वप्न
> उत्थितः ॥५३॥
>
> एवं जागरणादीनि जीवस्थानानि चात्मनः । मायामात्राणि विज्ञाय तद्रष्टारं परं
> स्मरेत् ॥५४॥
>
> अन्वयः - यथा सुषुप्तः पुरुषः विश्वं च आत्मनि पश्यति, आत्मानम् एकदेशस्यं
> मन्यते, स्वप्न उत्थितः, एवं जीवस्थानानि जागराणादीनि आत्मनः मायामात्राणि
> विज्ञाय तद द्रष्टारं परं स्मरेत् ।।५३-५४ ।।
>
> अनुवाद— जैसे स्वप्न में सोया हुआ पुरुष दूसरा स्वप्न होने पर सम्पूर्ण जगत्
> को अपने भीतर ही देखता है तथा दूसरा स्वप्न समाप्त हो जाने पर स्वप्न में ही
> जागता है, किन्तु वस्तुतः वह भी स्वप्न ही रहता है, वैसे ही जीव की जाग्रत
> इत्यादि अवस्थाएँ परमात्मा की माया ही है, इस तरह से जानकर सबों के साक्षी
> परमात्मा का ही स्मरण करना चाहिए ॥५३-५४ ॥
>
>
> ननु जाग्रदाद्यवस्थाभेदेन भोक्तृभोग्यात्मकं विश्वं स्फुटं प्रतीयमानं कथं
> कल्पितं स्यादित्याशङ्कय स्वप्रगतजाग्रदादिदृष्टान्तेन संभावयन्नाह-यथेति
> द्वाभ्याम् । यथा स्वप्ने सुप्तो विश्वं गिरिवनादिरूपं देशान्तरस्थमात्मन्येव
> पश्यति । स्वप्नमध्ये सुषुप्तिं स्वप्नं च पश्यतीत्यर्थः । तथा स्वप्न
> एवोत्थितः सन्नात्मानमेकदेशस्थं शयनदेशे स्थितं मन्यते जाग्रदवस्थामनुभवति ।
> एवं प्रसिद्धान्यपि जागरादीनि जीवस्थानानि जीवोपाधेर्बुद्धेरवस्थभूतान्यात्मनो
> मायामात्राणीत्येवं विज्ञाय तेषां द्रष्टारमत एव परं तदवस्थारहितमात्मानं
> स्मरेत् ।।५३-५४।।
>
>
> प्रश्न होता है कि जाग्रत आदि आवस्थाओं के भेद से भोक्ता एवं भोग्य स्वरूप
> सम्पूर्ण जगत् स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है, अतएव यह कल्पित कैसे हो सकता है
> ? इस तरह की आशङ्का करके स्वप्नगत जाग्रत आदि दृष्टान्त के द्वारा उसके सम्भव
> होने का प्रतिपादन करते हुए दो श्लोकों द्वारा कहते हैं ।
>
> जैसे स्वप्न में सोया हुआ पुरुष दूसरे स्थान में स्थित पर्वत तथा वन इत्यादि
> रूप सम्पूर्ण जगत् को अपने भीतर देखता है । स्वप्न के बीच में सुषुप्ति तथा
> स्वप्न को भी देखता है । और स्वप्न में जगकर अपने को एक स्थान में विद्यमान
> शयन स्थान में ही देखता है और अपने को जाग्रत् अवस्था के ही समान अनुभव करता
> है ।
>
> इस तरह प्रसिद्ध भी जागर आदि जीवों की अवस्थाएँ जीवोपाधि बुद्धि की ही
> अवस्थाएँ हैं और ये परमात्मा की मायामात्र हैं, इस तरह से जानकर उन सबों के
> द्रष्टा उस अवस्था से रहित परमात्मा को ही जानना चाहिए ॥५३-५४॥
>


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